उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मोहम्मदाबाद तहसील में स्थित शेरपुर गांव ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक अद्वितीय योगदान दिया था। 18 अगस्त 1942 को इस गांव के आठ वीर सपूतों ने तहसील मुख्यालय पर तिरंगा फहराते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन यह वीरगाथा राष्ट्रीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से कहीं गायब है। आइए जानते हैं इस ऐतिहासिक घटना और उन शहीदों के बारे में जिन्होंने आजादी से पांच साल पहले ही गाजीपुर को “आजाद” घोषित कर दिया था।
शेरपुर गाजीपुर जिले का एक ऐतिहासिक गांव है जो मोहम्मदाबाद तहसील में गंगा नदी के किनारे स्थित है। यह गांव गाजीपुर से लगभग 35 किमी दूर है और यूसुफपुर रेलवे स्टेशन से १२ किमी की दूरी पर स्थित है । यह गांव ‘सकरवार वंश’ के “भूमिहार ब्राह्मणों”का निवास स्थान रहा है ,आज भी यह गाँव भूमिहार ब्राह्मण बाहुल्य है।
इसकी स्थापना 1590 ईस्वी में बाबू दुल्लह राय ने की थी। शेरपुर को “स्वतंत्रता सेनानियों का गांव” कहा जाता है क्योंकि यहां के निवासियों ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई थी। गांव की ग्राम पंचायत में शेरपुर कलाँ, शेरपुर खुर्द, सेमरा, शिव राय का पुरा और बच्छलपुर जैसे गांव शामिल हैं।
स्वतंत्रता क्रांति के अग्रदूत, जाबांज स्वततंत्रता सेनानी: यमुना गिरि ने गाज़ीपुर में सबसे पहले उठाई थी क्रांति की चिंगारी
यमुना गिरि एक जांबाज स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
और गाज़ीपुर में क्रांति की चिंगारी को सबसे पहले हवा दी थी।
स्व. यमुना गिरि पुत्र स्व. सुदेश्वर गिरि का जन्म 26.09.1928 को ग्राम-शेरपुर कलॉ,
जनपद गाजीपुर पें हुआ था। बचपन में ही आपका लगाव स्वतंत्रता आन्दोलन और कांग्रेस के प्रति हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा गांव से ही पूरी करने के बाद आपने D.A.V. हाईस्कूल गाजीपुर में आगे की शिक्षा हेतु प्रवेश लिया ।
कक्षा नौ (9) का विद्यर्थी रहते ही 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी और अन्य नेताओं की गिरफ्तारी का समाचार 10 अगस्त को समाचार पत्र में पढ़़कर यमना गिरि का मन विद्रोह कर उठा । उन्होंने अपने साथी भोला राय और अन्य छात्रों के साथ योजना बनाकर १2 अगस्त को नगर के सभी विद्यालयों सीटी हाईस्कूल D.A.V. हाईस्कूल, विक्टोरिया कालेज गाजीपुर आदि के छात्रों को समझाकर हड़ताल करा दी। स्कूलों पर तिरंगा फहराने के बाद छात्रों का जूलूस निकाला, इनको तथा भोला राय को गिरफ्तार कर लिया गया।सायंकाल प्रताड़ित करके छोड़ दिया गया किन्तु छूटने के बाद ही यमुना गिरि ने आंदोलन की रणनीति बनाई, और सवतंत्रता आंदोलन के चिंगारी को हवा दी।
13 अगस्त को यमुना गिरि के नेतत्व में छात्रों द्वारा गाजीपुर घाट स्टेशन फूंक दिया गया ~ अंग्रजो भारत छोड़ो के क्रम में 14 अगस्त को श्री गिरि अपने साथियों के साथ गौसपुर निर्माणाधीन हवार्ड अड्डा को फूँक दिया, जो फिर कभी नहीं बन सका । पुलिस द्वारा की गयी फायरिंग में यमुना गिरि घायल हो कर गिर पड़े ,इनको बेहोशी की हालत में कैद कर लिया गया। इनके साथ चांदपुर के बिसुनी राय को भी गोली लगी थी दूसरे तत्कालीन कलेक्टर मुनरो के माफीनामा को न स्वीकार करने पर यमुना गिरि को गाजीपुर जेल भेज दिया गया। इसकी सूचना शेरपुर पहंचते ही वहाँ के यवकों में उबाल आ गया। और लगातार अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ शेरपुर के नवयुवक डॉक्टर शिवपूजन राय के नेतृत्व में रणनीति बना कर शासन को देश से उखाड़ फेंकने के लिए तैयार होकर एकजुट होने लगे।
गिरफ्तार होने के कुछ महीने बाद 13.01.1943 को आईपीसी की धारा 436.,395 में उन्हे पाँच वर्ष की कठोर सश्रम कारावास की सजा मिली । जेल मैन्युअल के विरुद्ध आचरण को देखते हुए इनको 03.02.1943 को गाजीपुर जेल से निकाल कर सीतापुर जेल भेज दिया । दिनांक- 03.04.1946 को सभी बन्दियों के साथ रिहा हुए।
स्वतंत्र भारत में यमुना गिरि ने उपनिरीक्षक पुलिस इंस्पेक्टर के पद पर सेवा की। उन्होंने अपनी सेवाओं के दौरान समाज में योगदान दिया और स्वतंत्रता संग्राम में अपने अनुभवों को साझा किया। 6 जून 1969 को उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है।
18 अगस्त 1942: वह ऐतिहासिक दिन
महात्मा गांधी के “करो या मरो” के आह्वान पर पूरे देश में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की लहर चल पड़ी थी। 18 अगस्त को डॉक्टर शिवपूजन राय के नेतृत्व में एक जुलूस मुहम्मदाबाद तहसील पर तिरंगा झंडा फहराने का संकल्प लिए आगे बढ़ने की योजना को मूर्त रूप देने के लिए उत्सुक हो गया था क्योंकि लगातार एक सप्ताह से अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ चुका था।
गाँव के एक नौजवान यमुना गिरि को गोली लगी थी इसलिए गाँव के नवयुवको में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ खूनी संघर्ष के लिए उबाल आ चुका था।
इसी कड़ी में 18 अगस्त 1942 को शेरपुर गांव के सैकड़ों युवाओं ने हनुमान मंदिर में पूजा-अर्चना करने के बाद मोहम्मदाबाद तहसील पर तिरंगा फहराने एवं यमुना गिरि का बदला लेने का योजनाबद्ध तरीके से निर्णय लिया। डॉ. शिवपूजन राय के नेतृत्व में शेरपुर से एक विशाल जुलूस तहसील मुख्यालय की ओर चला। जुलूस में हजारों की संख्या में लोग शामिल थे जिनमें अधिकांश के हाथों में लाठी-डंडे और भाले थे ।
जुलूस में नौजवानो द्वारा इन्कलाब जिन्दाबाद , यमुना गिरि का बदला लेगें अग्रेजों भारत छोड़ो, भारत माता की जय आदि नारे लगाते हुए नौजवान आगे लक्ष्य की तरफ क्रमशः बढ़ रहे थे।
अहिरौली गांव पहुंचने पर डॉ. शिवपूजन राय ने सभी को रोका और गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत को याद दिलाते हुए सभी से हथियार छोड़कर तिरंगा थामने का आग्रह किया। जुलूस दो दलों में बंट गया – पहले दल का नेतृत्व डॉ. शिवपूजन राय कर रहे थे जबकि दूसरे दल का नेतृत्व डॉ. ऋषेश्वर राय के हाथों में था । जब ये दल तहसील मुख्यालय पहुंचे तो अंग्रेजी सेना ने उन्हें झंडा न फहराने की चेतावनी दी, लेकिन डॉ. शिवपूजन राय ने गोलियों की परवाह किए बिना “भारत माता की जय” के नारों के साथ तहसील भवन पर चढ़कर तिरंगा फहरा दिया।
तिरंगा फहरते देख अंग्रेजों ने भीड़ पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। एक-एक कर आठ वीर सपूत शहीद हो गए, लेकिन तिरंगे को जमीन पर गिरने नहीं दिया । शहीद होने वाले आठ वीर थे:
डॉ. शिवपूजन राय – (आंदोलन के मुख्य नेता)
वंश नारायण राय,नारायण राय,ऋषेश्वर राय,राज नारायण राय,वंश नारायण राय द्वितीय,वशिष्ठ नारायण राय,रामबदन उपाध्याय
इनमें से दो लोगों को “जिंदा शहीद” कहा जाता है क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें मरा समझकर फेंक दिया था, लेकिन वे बच गए थे । इस घटना के बाद गाजीपुर के तत्कालीन डीएम मुनरो ने लंदन को एक रिपोर्ट भेजी थी जिसमें लिखा था: “अब भारत को आजाद करने में ही बेहतरी है क्योंकि यहां के युवा अब सीने पर गोलियां खाने लगे हैं”।
शेरपुर गांव से जुड़े एक और वीर सपूत सीताराम राय का जिक्र विशेष रूप से किया जाना चाहिए। 18 अगस्त 1942 को तहसील मुख्यालय पर तिरंगा फहराने के दौरान सीताराम राय को तीन गोलियां लगी थीं – एक दाहिनी बांह में, दूसरी सीने को छीलती हुई निकल गई जबकि तीसरी गोली दाहिनी पसली में घुसकर बायीं पसली में जा फंसी। सीताराम राय ने गंभीर जख्मी होने के बावजूद अंग्रेजी सिपाहियों की बंदूक छीनकर अपने साथियों को दे दी थी। उन्हें गाजीपुर, वाराणसी, फतेहगढ़ और हरदोई की जेलों में कठोर यातनाएं सहनी पड़ीं। हरदोई जेल में उन्होंने अपने साथियों को छुड़ाने के लिए 39 दिनों तक भूख हड़ताल की थी। आजादी के बाद उन्होंने वाराणसी के जायसवाल नेशनल इंटर कॉलेज में शिक्षक के रूप में सेवाएं दीं और 3 नवंबर 1998 को एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया।
शेरपुर के नौजवानों के बलिदान की कहानी हमें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान युवाओं की भूमिका के बारे में बताती है। उन्होंने अपने साहस और बलिदान से देश को आजादी दिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आज भी, उनकी कहानी युवाओं को प्रेरित करती है और उन्हें देश के लिए कुछ करने के लिए प्रोत्साहित करती है ।
बलिदानी धरती शेरपुर इन महापुरुषों द्वारा दिये गये योगदान के लिए सदैव ऋणी रहेगा ।
इतनी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना और इतने बड़े बलिदान के बावजूद शेरपुर के अष्ट शहीदों को राष्ट्रीय इतिहास में वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे। एक ही गाँव के इतने शहीद और ९९ स्वतंत्रता सेनानी होना जनपद के लिए गौरव की बात है किन्तु फिर भी शहीदों को उचित सम्मान नही मिला जिसके वे हक़दार थे, इसके कई कारण हो सकते हैं:
स्थानीय इतिहास का राष्ट्रीय मंच तक न पहुंचना*: यह घटना मुख्य रूप से गाजीपुर और आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित रह गई। राष्ट्रीय नेतृत्व का ध्यान अन्य बड़े आंदोलनों पर केंद्रित था।
दस्तावेजीकरण का अभाव उस समय इस घटना का पर्याप्त दस्तावेजीकरण नहीं हुआ। अधिकांश जानकारी मौखिक परंपरा और स्थानीय इतिहासकारों के लेखन तक ही सीमित रही।
सामाजिक-राजनीतिक कारण*: कुछ विद्वानों का मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम में दलितों, पिछड़ों और स्थानीय नायकों के योगदान को जानबूझकर कम करके आंका गया है।
ऐतिहासिक घटनाओं का चयनात्मक प्रस्तुतीकरण*: राष्ट्रीय स्तर पर केवल कुछ चुनिंदा घटनाओं और नायकों को ही प्रमुखता दी गई, जबकि स्थानीय स्तर के अनेक बलिदानियों को उपेक्षित कर दिया गया।
शिक्षा पाठ्यक्रम में स्थान न मिलना*: दुर्भाग्य से, शेरपुर के शहीदों की गाथा को राष्ट्रीय शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया, जिससे नई पीढ़ी उनके बारे में जान ही नहीं पाई।
इन शहीदों की याद में मोहम्मदाबाद तहसील को अष्ट शहीद पार्क के रूप में विकसित किया गया है। पार्क के बीच में लाल पत्थरों से आठों शहीदों के शौर्य का प्रतीक एक विजय स्तंभ बनाया गया है। महात्मा गांधी के चरखे के चिन्ह वाला वह तिरंगा आज भी शहीद भवन में सुरक्षित है जो उस दिन की घटना का मूक साक्षी है। शेरपुर गांव में भी एक शहीद स्तंभ बनाया गया है जहां इन आठ वीरों के नाम अंकित हैं। हर साल 18 अगस्त को इस दिन को याद किया जाता है और शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है।
शेरपुर के अष्ट शहीदों की कहानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन अनगिनत अध्यायों में से एक है जो राष्ट्रीय इतिहास की मुख्यधारा से बाहर कर दिए गए। यह घटना न केवल भारतीयों के स्वतंत्रता के प्रति अदम्य साहस को दर्शाती है, बल्कि यह भी याद दिलाती है कि हमारा स्वतंत्रता संग्राम केवल बड़े शहरों तक सीमित नहीं था – देश के कोने-कोने से लोगों ने इसमें अपना योगदान दिया था। आज आवश्यकता है कि ऐसी विस्मृत घटनाओं और नायकों को पुनर्जीवित किया जाए ताकि आने वाली पीढ़ियां अपने इतिहास की संपूर्णता को समझ सकें। शेरपुर के इन वीर सपूतों का बलिदान केवल गाजीपुर तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत होना चाहिए।